वीरान रिहर्सल स्पेस
- mayank gupta
- Apr 30, 2020
- 2 min read
Updated: Oct 28, 2020
By Rama Yadav
शून्य के दोस्तों को नमस्कार ,
सड़के वीरान और खाली पड़ी हैं l
मंडी हाउस जहाँ रात के ग्हारह बजे भी रिहर्सस करते ग्रुप दिखायी देते थे ,चाय के दौर चलते ...और चाय के साथ यारो दोस्तों की बातें ...हंसी के ठहाके ...नयी पुरानी स्क्रिप्ट पर चर्चा आज खाली वीरान पड़ा है ...किसी ने सोचा नहीं था थियेटर जो हर समय कुछ करता रहा है ऐसे शांत पडा होगा l खुद रंगकर्म करने वालों ने भी नहीं सोचा था , क्योंकि दिन का आधे से ज्यादा हिस्सा उनका सड़कों पर ही बीतता है ...ये दुनिया है थोड़ी अलग और निराली है ...अपने में ही गुम और अपने नशे में ही चूर l सही मायने में कोई थियेटर कलाकार होगा तो अपने में ही अपने से ही संतुष्ट होगा l वो क्या कर रहा है उसे इस बात से फर्क पड़ता है , दूसरा क्या कर रहा है इससे नहीं l उसने अपने भीतर की कस्तूरी को अपने भीतर ही पा लिया है l फिर से नयी हो रही है पर प्रकृति इस कीमत पर नयी होगी यह नहीं पता थाl कई बार लगता है कि साल में दस दिन अगर पूरा विश्व अपने को खुद ही लॉक डाउन कर ले बिना किसी मुसीबत के आए तो प्रकृति के लिए कितना अच्छा हो l प्रकृति से हम कितना लेते हैं दस दिन का स्वयं निर्धारित लॉक डाउन कितना उपयोगी हो सकता है ..ये मेरे जैसा आम आदमी क्या बताएगा ...क्योंकि तब सता को अर्थव्यवस्था के पीछे हो जाने का डर होगा l आज हम जो घर में बैठे हैं तरह - तरह की बाते भी कर रहे हैं ..कि यह वो समय है जिसे हम अपने लिए उपयोग कर सकते हैं पर सच तो यह है कि हर दिल में एक वीरानी छायी है ..गहरी उदासी जो हमें खुद भी नहीं दिखायी दे रही ... वीरान सड़कें फिर से चल पहल वाली होंगी ..पर खुद से खुद को तो प्रण होगा कि हमारे साथ हमारी प्रकृति भी खुश रहे l आजकल हम प्रलय की छाया की बात कर रहें हैं जो कि जयशंकर प्रसाद की कविता है l प्रसाद के शब्द आज याद आ रहें हैं जो उनके महाकाव्य कामायनी से हैं प्रकृति रही दुर्जेय पराजित हम सब थे ... भूले मद में दरअसल प्रकृति को जीता नहीं जा सकता ये आज सच हो रहा है l
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